निवेदन
अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक परात्पर ब्रह्म श्रीमन्नारायण की परम प्रेयसी श्रीलक्ष्मी महारानी की कृपा से देश की जनता श्रीसम्पन्न हो सकती है मात्र भौतिक आडम्बर से नहीं। मानव विविध विधियों के द्वारा आर्थिक समृद्धि लाने को प्रयत्नशील है. किन्तु अध्यात्म शक्ति के बिना पूर्ण सफल नहीं हो पाती।
समुद्र मंथन काल में अवतरित श्रीलक्ष्मीजी की इन्द्र ने प्रस्तुत स्तोत्र के द्वारा स्तुति की। श्रीलक्ष्मीजी ने वरदान दिया कि इस स्तोत्रके द्वारा जो स्तवन करेगा वह मेरी कृपाका पात्र होगा। जिन व्यक्तियों ने नियमित रूप से पाठ किया, उनको आश्चर्यजनक लाभ हुआ है। स्तोत्र का महत्व पाठ करके ही जाना जा सकता है। पाठकों की सुविधा हेतु प्रत्येक श्लोक का हिन्दी अनुवाद साथ ही दिया गया है।
लक्ष्मी-स्त्रोत' का जो मनुष्य २१ दिन तक नियम से एक समय भोजन(पीला)करेगा उसको अवश्य ही फल की प्राप्ति होगी।
विधि- सामने श्रीलक्ष्मी-नारायणजी का चित्रपट, शुद्ध घी का दीपक, केले का फल, धूप, फूल माला से पूजा कर एक ऊनी आसन पर बैठकर ११ पाठ नित्य २१ दिन श्रद्धा से करें।
निवेदक-
पं केशवप्रपत्न शास्त्री
सम्पादन-'अनन्त-सन्देश' वृन्दावनः
श्रीलक्ष्मी-स्तोत्रम्
इन्द्र उवाच-इन्द्र ने कहा-
नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम्।
श्रियमुत्रिद्रपद्याक्षों विष्णुवक्षस्थलस्थिताम् ।।१।।
समस्त लोकों को जननी, खिले हुए कमल के समान नेत्रों ।
बाली, भगवान विष्णु के हृदय में सदा विराजमान, कमल से
उत्पन्न श्रीलक्ष्मीदेवी को मैं नमस्कार करता हु ।।
पद्याल्यां पद्यकरां पद्यपत्रनिभेक्षणाम् ।
वन्दै पद्यमुखी देवों पढमनाभप्रियामहम् ॥२॥॥
कमल पर निवास करने वाली, कमल ही जिसके कर में
सुशोभित है तथा कमल दल के समान ही सुन्दर नेत्र है ऐसी
कमलामुखी कलनाभ श्रीविष्णु की प्रिया श्रीकमलादेवी को मै
हृदय से वन्दना करता हू ॥२॥॥
त्वं सिदिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी ।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥३॥
हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो और तुम ही स्वाहा हो।
अमृतमयी और तीनों लोकों को पवित्र करने वाली हो, तथा हे,
मातः तुम ही संध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो ॥३॥
यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने ।
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥४॥
हे मुमूखि आप ही यज्ञविद्या (कर्मकांड स्वरूपा) महाविद्या
(उपासना) और गुह्यविद्या (शरणागति) हो और मुक्तिफल देने वाली आत्मविद्या भी हो ॥४॥
आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।
सौम्यासौम्यंजंगद्रूपे त्वयैतद्देवि पूरितम् ॥५॥
हे देवी ! तुम आन्वीक्षिकी (तर्क विद्या) तथा वेदत्रयी, वार्ता
(थिल्य वाणिज्य आदि) और तुम ही राजनीति (दण्डनीति) भी
हो। तुम्हारा ही शान्त एवं उग्र रूप समस्त संसार में व्याप्त है ।
का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः ।
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥६॥
हे देवि ! योगियों द्वारा निरन्तर चिन्तन किये जाने वाले
सर्वयज्ञमय विष्णु के शरीर का आश्रय पाने वाली, तुम्हारे अति-
रिक्त संसार में कोई स्त्री नहीं है ।।६।।
त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम् ।
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानी समेधितम् ॥७॥
हे विष्णु प्रिये ! तुम्हारे छोड़ देन पर तीनों लोक नष्ट जैसे
हो गये थे, अब तुम्हों ने उन्हें नव-जीवन दान दिया है। ॥७॥
दाराः पुत्रास्तथागार सुहद्धान्यधनादिकम् ।
भवत्येतन् महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम् ॥८॥
हे महादेवि ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा मित्र ये सब
आपकी कृपा दृष्टि से ही मनुष्य को प्राप्त होते हैं ॥८॥
शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम् ।
देवि त्वद् दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम् ॥९॥
हे देवि ! तुम्हारी दयादृष्टि प्राप्त पुरुषों के लिए शारीरिक
आरोग्य, ऐवर्य, शत्रुओं का नाश और समस्त सुखों का प्राप्त
होना अति सुलभ है ॥९॥
त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरिः पिता ।
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद् व्याप्तं चराचरम् ॥१०॥
हे देवि ! तुम समस्त लोकों की माता हो और भगवान।
विष्णु पिता है। हे मातः तुम और देवाधिदेव भगवान
हरि समस्त चराचर में व्याप्त है।
मा नः कोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम् ।
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि ॥११॥
हे मातेश्वरि ! आप सबको पवित्र करने वाली हैं।
हमारे खजाने, गौशाला, घर, भोग-सामग्री, शरीर और स्त्री को,
आप न त्यागे ॥११॥
मा पुत्रान्मा सुहृर्ग मा पशून्मा विभूषणम् ।
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलालये ॥१२॥
चराचरपति विष्णु के हृदय पटल पर निवास करने वाली
देवि ! हमारे पुत्र मित्र पशु और भूषणों को आप कभी नछोडें ॥१२॥
सत्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिगुणै: ।
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥१३॥
हे विमले ! जिन मनुष्यों को तुम छोड़ देती हो उनके सत्व
(मानसिक बल) सत्य, शौच और शील आदि शीघ्र ही नष्ट
हो जाते हैं ॥१३॥
त्वया विलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैगणैः ।
कुलंश्वयश्र युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥१४॥
तुम्हारी कृपादृष्टि पड़ते ही मनुष्य गुणहीन होने पर भी
शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुणों, कलीनता एवं ऐश्वर्य से सम्पन्न
हो जाता है ।।१४॥
सश्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् ।
स शूरः स च विक्रान्तो यं त्वं देवि निरीक्षसे ॥१५॥
हे देवि ! जिस पर तुम्हारी कृपादृष्टि पड जाती है वही
प्रशंसा के योग्य, गुणी और धन्य भाग्य वाला है और वही मनुष्य
परम कुलीन बुद्धिमान और महान् पराक्रमी हो जाता है ॥१५॥
सद्यो वैगुण्यमायान्ति शोलाद्याः सकला गुणाः ।
पराङ्मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥१६॥
हे विष्णु प्रिया मातेश्वरि ! तुम्हारे विमुख हो जाने पर
मनुष्य के शील आदि गुण अवगुणों में बदल जाते हैं ।।१६।।
न ते वर्णयितुं शक्ता गुणाञ्जिह्वापि वेधसः ।
प्रसीद देवि पद् माक्षि मास्मांस्त्याक्षीः कदाचन ॥१७॥
हे जगजन्माता ! तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में तो ब्रह्माजी
की जीभ भी असमर्थ है। फिर मैं तो अत्यन्त तुच्छ हैं। अत: हे
कमलनयने ! मुझ पर अब प्रसन्न हो जाइये और मुझे कभी न छोड़िये ॥१७॥
फलश्रुति
श्री पराशर उवाच-श्री पराशर बोले---
एवं श्रीः संस्तुता सम्यक् प्राह देवी शतक्रतुम् ।
श्रृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज ! ॥१८॥
हे द्विज ! इस प्रकार सम्यक् स्तुति किये जाने पर सर्वभूत-
स्थिता श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओं के सुनते हुए इस प्रकार,बोलीं ॥१८॥
श्री रुवाच-श्रीलक्ष्मीजी बोलीं-
परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे ! ।
वरं वृणीष्व, यस्त्विष्टो वरदांह तवागता ॥१९॥
हे देवेश्वर इन्द्र ! मैं तेरे इस स्तोत्र से अति प्रसन्न है। तझको
जो अभीष्ट हो वही वर मांग ले। मै तुझे वर देने के लिए यहा आयी हूँ ।।१९।।
इन्द्र उवाच-इन्द्र ने कहा----
वरदा यदि मे देवि वरार्हो यदि वाप्यहम् ।
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेऽस्तु वरः परः ॥२०॥
यदि आप वर देना चाहती हैं और मैं भी वर पाने योग्य
हूं। तो मुझे पहला वर यही दे कि आप इस त्रिलोकी का
कभी त्याग न करें ।।२०।
स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे ।
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तु वरो मम ॥२१॥
हे समुद्रसम्भवे ! दूसरा वर मुझे यह देखिए कि जो कोई
आपकी इस स्तोत्र से स्तुति करे उसे आप कभी न त्यागे ॥२१॥
श्रीरुबाच-श्रीलक्ष्मीजी ने कहा--
त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव ।
दत्तो वरो मया यस्ते स्तोत्राराधनतुष्टया ॥२२॥
हे देवश्रेष्ठ इन्द्र ! मैं अब इस त्रिलोकी को छोड़कर कभी
नहीं जाऊँगी। तेरे इस स्तोत्र से प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर
देती हूँ ।।२२॥
यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः ।
मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराङ्मुखी ॥२३॥
तथा जो कोई मनुष्य प्रातःकाल और सायंकाल के समय
इस स्तोत्र से मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न
होऊँगी ॥२३॥
श्रीपराशर उवाच-श्रीपराशर बोले--
एवं ददौ वरं देवी देवराजाय वै पुरा ।
मैत्रेय श्रीर्महाभागा स्तोत्राराधनतोषिता ॥२४॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार पूर्वकाल में महाभागा श्रीलक्ष्मीजी ने
देवराज की स्तोत्ररूपा आराधना से सन्तुष्ट होकर
उन्हें यह वर दिये ॥२४॥
भृगोः ख्यात्यां समुत्पन्ना श्रीः पूर्वमुदधेः पुनः ।
देवदानवयत्नेन प्रसूतामृतमन्थने ॥२५॥
लक्ष्मीजी पहले भृगुजी की ख्याति नामक स्त्री से उत्पन्न हुई
थी । फिर अमृत मन्थन के समय देवो-दानवो के प्रयल से वे समुद्र
से उत्पन्न हुई ॥२५॥
एवं यदा जगत्स्वामी देवदेवो जनार्दनः ।
अवतारं करोत्येषा तदा श्रीस्तत्सहायिनी ॥२६॥
इस प्रकार संसार के स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णु भगवान्
जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी तभी लक्ष्मीजी उनके साथ
रहती हैं ॥२६॥।
पुनश्च पद्मादुत्पन्ना आदित्योऽभूद्यदा हरिः |
घदा तु भार्गवो रामस्तदाऽभूद्धरणी त्वियम् ॥२७॥
जब श्रीहरि आदित्य रूप हए तो वे पद्य से उत्पन्न हुई ।
पद्मा कहलायीं तथा जब वे परशुराम हुए तो वे पृथ्वी हुई ॥२७॥
राघवत्वेऽभवत्सीता रुक्मणी कृष्णजन्मनि ।
अन्येषु चावतारेषु विष्णोरेषानपायिनी ॥२८॥
श्रीहरि के राम होने पर सीताजी हुई और कृष्णावतार
में रुक्मणीजी हुई । इस प्रकार अन्य अवतारों में भी यह भगवान्
से पृथक् नहीं होती हैं ॥२८॥ (विष्णोः श्रीरनपायिनी )
देवत्वे देवदेहेयं मनुष्यत्वे च मानुषी ।
विष्णोर्देहानुरूपां वै करोत्येषात्मनस्तनुम् ॥२९॥
भगवान के देवरूप होने पर ये दिव्य शरीर धारण करती
हैं और मनुष्य होने पर मानवी रूप से प्रकट होती हैं। श्रीविष्णु
भगवान् के शरीर के अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती :हैं ॥२९॥
यश्चैततच्छृणुयाज्जन्म लक्ष्म्या यश्चपठेन्नरः ।
श्रियो न विच्युतिस्तस्य गृहे यावत्कुलत्रयम् ॥३०॥
जो मनुष्य लक्ष्मी के जन्म की इस कथा को सुनेगा अथवा
पड़ेगा उसके घर में (वर्तमान आगामी और भूत) तीनों कालों
में रहते हुए कभी लक्ष्मी का नाश नहीं होगा ॥३० ॥
पठ्यते येषु चैवेयं गृहेषु श्रीस्तुतिमुमुर्ने ।
अलक्ष्मीः कलाकार न तेष्वास्ते कदाचन ॥३१॥
हे मते जिन घरों में लक्ष्मी के इस स्तोत्र का पाठ होता है।
उनमें कलह की आधार भूता दरिद्रता कभी नहीं आती (ठहर
नहीं सकती) है।॥३१॥
एतत्ते कथितं ब्रह्मन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि ।
क्षीराब्धौ श्रीर्यथा जाता पूर्व भृगुसुता सती ॥३२॥
हे ब्रह्मन् ! तुमने जो मुझसे पूछा था कि पहले भृगुजी की
पत्री होकर लक्ष्मी क्षीरसमुद्र से उत्पन्न हुई सो मैंने तुमसे
कहा ॥३२॥
इति सकल विभूत्यवाप्तहेतु- स्तुतिरियमिन्द्रमुखोद्गगता
हि लक्ष्म्या- ।अनुदिनमिह पठ्यते नृभिर्यै
र्वसति न तेषु कदाचिदप्यलक्ष्मीः ॥३३॥
इस प्रकार इन्द्र के मुख से प्रकट हुई यह लक्ष्मीजी की
स्तुति सकल विभूतियों की प्राप्ति का कारण है जो लोग इसका
नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घर में निर्धनता कभी न रह
सकेगी॥३३॥
॥ श्रीविष्णुपुराणान्तर्गतं श्रीलक्ष्मीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
Abhishek Basa Bandh
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वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर